आयुर्वेद के अनुसार रस – आयुर्वेदशास्त्र में वर्णित छः प्रमुख रसों का वर्णन है
- स्वादु (मीठा) रस: यह मीठा रस होता है।
- अम्ल (खट्टा) रस: यह खट्टा रस होता है।
- लवण (नमकीन) रस: यह नमकीन रस होता है।
- तिक्त (नीम और चिरायता आदि) रस: यह तिक्त रस होता है, जो नीम और चिरायता जैसे द्रव्यों में पाया जाता है।
- ऊषण (कटु-कालीमिर्च आदि) रस: यह कटु रस होता है, जैसे कालीमिर्च आदि द्रव्यों में पाया जाता है।
- कषाय (कसैला-हरीतकी आदि) रस: यह कषाय रस होता है, जैसे कसैला और हरीतकी जैसे द्रव्यों में पाया जाता है।
ये सभी रस विभिन्न द्रव्यों में पाए जाते हैं और उनकी गुणकारी प्रभावों में अंत की ओर बढ़ते हैं। मधुर रस सबसे अधिक बलवर्धक होता है, और इसके बाद सभी रस उत्तरोत्तर बलनाशक होते हैं।
रसना (जीभ) के द्वारा हम रस का स्वादन करते हैंऔर जीभ के द्वारा रस का विषय होता है। चरक संहिता में भी कहा गया है कि जब किसी द्रव्य का जीभ से संबंध होता है, तब हमें उसके रस की प्रतीति होती है, जैसे कि हम मीठा, खट्टा आदि के रस को पहचानते हैं।
तीन प्रमुख रस (मधुर, अम्ल, लवण) वात दोष को शमन करते हैं, जबकि तिक्त, कटु और कषाय रस कफ दोष को शमन करते हैं, और कषाय, तिक्त और मधुर रस पित्त दोष को शमन करते हैं। इससे उल्टा रस वात, पित्त और कफ दोषों को बढ़ाते हैं।
इसके साथ ही भगवान पुनर्वसु ने भी इस विषय पर चर्चा की है और कहा है कि तीन-तीन रस एक-एक दोष को उत्पन्न करते हैं और उन्हीं रसों द्वारा उन दोषों को शमन किया जाता है। उदाहरण के रूप में, कटु, तिक्त और कषाय रस वात दोष को उत्पन्न करते हैं, जबकि मधुर, अम्ल और लवण रस इसे शमन करते हैं। कटु, अम्ल और लवण रस पित्त दोष को उत्पन्न करते हैं, जबकि मधुर, तिक्त और कषाय रस इसे शमन करते हैं। कटु, अम्ल और लवण रस कफ दोष को उत्पन्न करते हैं, और कटु, तिक्त और कषाय रस इसे शमन करते हैं। इसी तरह के अर्थमें महर्षि वाग्भट भी इस विषय का अभिप्राय रखते हैं।