आयुर्वेद के अनुसार रोग के प्रकार और अधिष्ठान-आयुर्वेद में, रोगों के दो भेद निज (आंतरिक दोषों से होने वाले) और आगन्तुज (बाहरी कारणों से होने वाले) के रूप में वर्णित किए गए हैं। रोग होने के कारण
निजागन्तुविभागेन तत्र रोगा द्विधा स्मृताः ॥ २० ॥
- निज रोग: यह रोग शारीरिक दोषों (वात, पित्त, कफ) से उत्पन्न होते हैं। यदि शरीर में दोषों का संतुलन टूट जाता है, तो रोग का उत्पादन हो सकता है। यह रोग निजी होते हैं क्योंकि उनका कारण शरीर की आंतरिक समस्याओं में होता है। उदाहरण के रूप में, वात, पित्त और कफ के असंतुलन से उत्पन्न होने वाले ज्वर, रक्तपित्त, कास, श्वास आदि निज रोग हैं।
- आगन्तुज रोग: यह रोग बाहरी कारणों से होते हैं, जैसे दुर्घटना, भूत-प्रेत, सर्प, गर्मी, ठंडी, आग, तेजाब आदि के प्रभाव से। इन रोगों का कारण शरीर को आक्रमण करने वाले बाहरी कारकों में होता है। इनमें अभिघात, भूतावेश, शीतोष्णता, आग आदि कारकों के प्रभाव से रोग हो सकता है।
इस प्रकार, आयुर्वेद में रोगों को निज और आगन्तुज के रूप में विभाजित किया गया है। इन दोनों प्रकार के रोगों का निदान, उपचार और प्रतिरोधक क्षमता का संरक्षण करने के लिए आयुर्वेद में विभिन्न उपाय और चिकित्सा पद्धतियाँ प्रयोग की जाती हैं।
आयुर्वेद में, रोगों की उत्पत्ति और अधिष्ठान के संबंध में दो स्थानों का विवेचन किया जाता है – काया (शरीर) और मन। इन दोनों स्थानों के माध्यम से व्यक्ति के रोगों का समय और स्थान का विश्लेषण किया जाता है।
तेषां कायमनोभेदादधिष्ठानमपि द्विधा ।
- काया (शरीर): काया के अधिष्ठान में होने वाले रोगों का मुख्य कारण शरीर के दोषों का विकार होता है। आयुर्वेद में, त्रिदोष (वात, पित्त, कफ) का संतुलन बनाए रखना महत्वपूर्ण माना जाता है। यदि दोषों में असंतुलन होता है, तो रोग का उत्पादन हो सकता है। विभिन्न शारीरिक रोग जैसे ज्वर, रक्तपित्त, कास, श्वास आदि काया के अधिष्ठान में होते हैं। इन रोगों का कारण वात, पित्त, कफ दोषों की असंतुलन हो सकती है जो शरीर में दुर्बलीकरण, आम वृद्धि, अग्नि मंद्य, मल संचय, रक्त दोष आदि के रूप में प्रकट हो सकते हैं।
- मन: मानसिक अधिष्ठान में होने वाले रोगों का मुख्य कारण मन के विकार और मानसिक दोष होते हैं। इन रोगों का कारण मन की अस्थिरता, भावनाओं का असंतुलन, मानसिक तनाव, जीवनशैली, परिवार या सामाजिक दबाव, आत्महत्या या अप्रिय घटनाओं का सामरिक दबाव, आदि हो सकते हैं। इससे संबंधित रोग जैसे मद, मूर्च्छा, संन्यास, ग्रहारिष्ट, भूतोन्माद, अपस्मार, राग, द्वेष आदि मानसिक अधिष्ठान में होते हैं।
इस प्रकार, आयुर्वेद में द्विधा भेद के अनुसार रोगों का अधिष्ठान काया (शरीर) और मन में होता है। इन दोनों के अधिष्ठान में होने वाले रोगों के निदान, उपचार और रोग प्रतिरोधक क्षमता का संरक्षण करने के लिए आयुर्वेद में विभिन्न उपाय और चिकित्सा पद्धतियाँ प्रयोग की जाती हैं।