आयुर्वेद के अनुसार वीर्य – महर्षि चरक और सुश्रुत की संहिताओं में वीर्य के संबंध में किसी प्रकार का मतभेद नहीं है। वे दोनों ही आचार्यों के अनुसार वीर्य को शीतगुण और उष्णगुण की अधिकता के आधार पर दो प्रकार में मान्यता देते हैं। इससे सिद्ध होता है कि वीर्य का वर्णन द्रव्यों में शीतगुण और उष्णगुण की अधिकता के आधार पर होता है।
सामान्य रूप से, सभी पदार्थ या तो उष्ण होते हैं या शीत होते हैं, इसलिए दो प्रकार के वीर्य होना स्वाभाविक है। तथापि, वायु द्रव्य एक ऐसा द्रव्य है जिसमें ‘अनुष्णाशीतस्पर्श’ होता है, इसलिए यहां उपरोक्त समाधान के अनुसार वायु को ‘योगवाही’ माना जा सकता है।
एक आचार्य का मत – वीर्य आठ प्रकार का भी रहा था जिसे सभी ने सम्मान पूर्वक स्वीकार भी किया —१. मृदु, २. तीक्ष्ण, ३. गुरु, ४. लघु, ५. स्निग्ध, ६. रूक्ष, ७. उष्ण और ८. शीत