त्रिदोष का आपकी पेट की भूख से क्या सम्बन्ध है ?
तैर्भवेद्विषमस्तीक्ष्णो मन्दश्चाग्निः समैः समः यह श्लोक आयुर्वेद में प्राकृतिक दोषों (वात, पित्त, कफ) और अग्नि (जठराग्नि) के संबंध पर आधारित है। यह कहता है कि दोषों के कारण अग्नि विषम (अनुपातिक) होती है, जिसका अर्थ है कि ये दोष अग्नि को अचानक प्रभावित करते हैं और उसकी गतिशीलता में विचलिति पैदा करते हैं। जब अग्नि विषम होती है, तो वात दोष के प्रभाव से अग्नि विषम होती है और पित्त दोष के प्रभाव से भी अग्नि तीक्ष्ण होती है। वहीं, कफ दोष के कारण अग्नि मन्द होती है।
इस वाक्य के माध्यम से यह समझना महत्वपूर्ण है कि दोषों का बल वात, पित्त, और कफ के समान होने पर अग्नि संतुलित रहती है। यह श्लोक हमें यह सिखाता है कि अग्नि और पित्त के गुण-धर्म समान होते हैं, इसलिए पित्त दोष की वृद्धि से अग्नि की तीक्ष्णता स्वाभाविक है।
यह वाक्य आयुर्वेदिक सिद्धांतों का उदाहरण है और यह बताता है कि अग्नि के गुण-धर्म विस्तार और समझने में महत्वपूर्ण हैं। इसे अपनी जीवनशैली में लागू करके हम अपने शरीर की स्वास्थ्य और तंदरुस्ती को संतुलित रख सकते हैं।